अँधियारों की कानाफूसी
उजियारे की लाचारी
नीलांबर चुप ही रहता है
देख जगत की अय्यारी।
बरसों से सपनों के घर में
निंदिया बंदी पड़ी हुई
आँसू भी थकते हैं बह कर
पीड़ा फिर भी अड़ी हुई
साथ दुखों की पर्ची लेकर
रात घूमती कचनारी।
अनुभव और अनुबंधों की
झुलसी लगती है फसलें
और हाशिए पर दिखते हैं
केंद्र बिंदु वाले मसले
बिना भाव अब जीवन बिकता
जो था पहले व्यापारी।
सदाचार अभिशप्त हुआ है
मूल्य कर रहे हैं नाटक
अँगुली उठती रही समय की
हुई नीतियाँ भी घातक
नई पीढ़ियाँ काट रही हैं
कब से ममता की क्यारी।
जीवन का प्रतिमान बने जो
भागे-भागे फिरते हैं।
नई सभ्यता के मारे क्यों
पाँव गगन पर धरते हैं
चारों तरफ दिखाई देती
भूख, प्यास और बेकारी।